“सुपरमैन नहीं, आम इंसान है पुलिस वाला”

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देश में जब भी कोई वारदात होती है, सबसे पहले पुलिस को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। घटना छोटी हो या बड़ी, निलंबन की तलवार सबसे पहले वर्दीधारी पर गिरती है।

लेकिन सवाल यह है—क्या पुलिस वाला किसी जादूगर से कम नहीं है जो हर जगह एक साथ मौजूद हो सके? आखिर वह भी इंसान है, मांस और खून से बना, हमारी-आपकी तरह।

फर्क सिर्फ इतना है कि उसके कंधों पर वर्दी है और उसके साथ वह जिम्मेदारी, जिसे उठाना कई बार नामुमकिन लगता है।

आंकड़े जो झकझोरते हैं

135 करोड़ आबादी वाले इस देश में महज 20 लाख 91 हजार पुलिसकर्मी हैं। इसका मतलब हुआ कि एक अकेला पुलिसकर्मी औसतन 641 नागरिकों की सुरक्षा का बोझ उठाता है।

सोचिए, क्या कोई डॉक्टर एक साथ 641 मरीज़ देख सकता है? क्या कोई शिक्षक एक ही क्लास में 641 बच्चों को पढ़ा सकता है? तो फिर एक पुलिसकर्मी से यह उम्मीद क्यों कि वह 641 लोगों की सुरक्षा हर हाल में कर लेगा?

वीआईपी बनाम आम जनता

अब दूसरी तस्वीर देखिए—देश में 19,467 वीआईपी हैं, जिनकी सुरक्षा में 66,043 पुलिसकर्मी तैनात हैं। यानी हर एक वीआईपी पर औसतन तीन पुलिसकर्मी।

और उधर करोड़ों आम नागरिक ऐसे हैं, जिनकी तरफ मुड़कर देखने वाला भी कोई नहीं। यह आंकड़े सिर्फ नंबर नहीं, बल्कि एक कड़वी सच्चाई हैं—इस देश में सुरक्षा भी अमीरों और ताकतवरों की बपौती बन चुकी है।

थकान, दबाव और राजनीति

पुलिस की नौकरी 8 घंटे की ड्यूटी नहीं, बल्कि 24 घंटे की गुलामी है। छुट्टियाँ उनके लिए एक सपना हैं और त्योहार सिर्फ ड्यूटी बढ़ाने का बहाना।

ऊपर से संसाधनों की कमी, लगातार ओवरटाइम, राजनीतिक दबाव और समाज की उम्मीदें—सब मिलकर पुलिस को तोड़कर रख देती हैं।

यही वजह है कि कई बार उनसे गलतियाँ होती हैं, लेकिन तब पूरा समाज उंगली उठाने के लिए तैयार खड़ा मिलता है।

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